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From: Sarfaraz Ahmed <ahmedms10@gmail.com>
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Sent: Thursday, 8 August 2013, 7:27
Subject: देश के हर मुसलमान तक पहुँचना चाहिए यह 'सच'

देश के हर मुसलमान तक पहुँचना चाहिए यह 'सच'

Posted by: admin August 8, 2013 in ExclusiveLead Leave a comment
Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines
मुसलमानों को इस वक्त क्या चाहिए? किसी विवादित ज़मीन पर बनी मस्जिद जिसमें बमुश्किल 200 नमाज़ी नमाज़ पढ़ पाएं? विधानसभा या संसद में किए गए झूठे वादे या फिर देश के संसाधनों और योजनाओं में अपना हक़?
इस सवाल के जबाव तक पहुँचने में आपकी मदद करने के लिए बस हम कुछ आँकड़े आपके सामने पेश करना चाहते हैं. यकीन जानिए यह आँकड़े पढ़कर आपके सामने नीतीश की टोपी उतर जाएगी, मुलायम आपको कठोर नज़र आएंगे, आज़म खाँ का असली चेहरा सामने आ जाएगा और मुस्लिम परस्त दिखने वाले बाकी सरकारों और नेताओं की बेशर्म हक़ीकत आपके सामने नंगी हो जाएगी.
Indian MuslimsBeyondHeadlines को केन्द्र सरकार के अल्पसंख्यक मंत्रालय से सूचना के अधिकार के ज़रिए मिले अहम दस्तावेज़ अल्पसंख्यक़ों के कल्याण के लिए शुरू की गई स्कीमों की हकीक़त बयाँ कर रहे हैं. आप जानेंगे कि कैसे अल्पसंख्यक, खासकर मुसलमानों के कल्याण का दावा करने वाली यह योजनाएं काग़जों में ही दम तोड़ रही हैं. (या नेता इनका गला घोंट रहे हैं.)
मुसलमानों के शैक्षिक, सामाजिक व आर्थिक उत्थान के लिए सरकार की कई संस्थाएं व स्कीमें चल रही हैं. उन्हीं संस्थाओं में एक नाम मौलाना आजाद एजुकेशन फाउंडेशन का भी है. अख़बारों के बिके हुए पन्ने इस संस्था की तारीफ़ से भरे मिल जाएंगे, लेकिन हकीक़त यह है कि साल 2012-13 में इस संस्था के लिए 100 करोड़ का बजट पास किया गया, लेकिन रिलीज़ हुए सिर्फ एक लाख रुपये. हद तो यह है कि यह एक लाख रुपये भी खर्च नहीं किए गए. यदि खर्च होते तो किसी ज़रूरतमंद मुसलमान का भला हो जाता, जो शायद न सरकार चाहती है और न ही खोखले दावे करने वाले नेता.
अल्पसंख्यक महिलाओं में लीडरशीप डेवलपमेंट को लेकर सरकार द्वारा अल्पसंख्यक महिला नेतृ्त्व विकास स्कीम (Scheme for Leadership Development of Minority Women) शुरू की गई. इस स्कीम के लिए साल 2012-13 में 15 करोड़ का बजट रखा गया, लेकिन जारी किए गए सिर्फ 12.80 करोड़ रूपये और इसमें से भी सिर्फ 10.45 करोड़ ही खर्च किया जा सका.
जबकि इससे पहले के वर्षों में साल 2011-12 में 15 करोड़ का बजट रखा गया और रिलीज सिर्फ 4 लाख ही किया गया. उसी तरह साल 2010-11 में भी 15 करोड़ का बजट रखा गया जबकि रिलीज 5 करोड़ किया गया. यही नहीं, साल 2009-10 में यह बजट 8 करोड़ का था और 8 करोड़ रूपये रिलीज़ भी किया गया. पर जब खर्च की बात आती है तो शुन्य बटा सन्नाटा… सारा धन रखा का रखा ही रह गया. यही हाल साल 2010-11 और साल 2011-12 का भी रहा. यदि यह पैसा खर्च किया जाता तो सकता है कि मुसलमानों में कुछ महिलाओं कौम की रहनुमाई की अहम जिम्मेदारी संभालने के लायक हो जाती. लेकिन शायद हमारे नेता और सरकारे ऐसा नहीं चाहती. उनके लिए तो मस्जिदों की दीवारें और इफ़्तार पार्टियाँ ही अहम हैं.
यही हाल Grant-in-aid to State Channelising Agencies (SCA) engaged for implementation in NMDFC Programme का भी है. इस कार्य के लिए भी साल 2012-13 में 2 करोड़ का बजट रखा गया, लेकिन रिलीज़ सिर्फ 66 लाख रूपये ही किया जा सका. गनीमत होती कि इसमें से कुछ पैसा जरूरतमंदों पर खर्च कर दिया जाता. लेकिन पूरी बेशर्मी और बेहाई के साथ संबंधित विभाग इस पैसे को दबाए रहा और एक फूटी कौड़ी भी खर्च नहीं की गई. (यहाँ, यह सवाल करना ही बेमानी है कि जब कोई पैसा ही खर्च नहीं किया गया तो संबंधित विभाग के अधिकारियों ने काम क्या किया, शायद वे नेताओं के लिए वसूली का टारगेट पूरा कर रहे हों.)
राज्यों के वक्फ़ बोर्डों को मज़बूत (Strengthening of the state Wakf Board) करने के लिए साल 2012-13 में 5 करोड़ का बजट रखा गया, लेकिन रिलीज़ सिर्फ 10 लाख रूपये ही हुआ. क्या आपको यह बताने की ज़रूरत है कि इस फंड में से एक भी रूपया खर्च नहीं किया गया? और अगर आपको पता चल भी जाए कि इस फंड में से भी एक भी पैसा खर्च नहीं किया गया तो आप क्या करेंगे? शायद कुछ भी नहीं, क्योंकि हो सकता है आपके लिए भी एक मस्जिद (जो जहाँ, है वहाँ होनी ही नहीं चाहिए थी) की दीवार ही ज्यादा अहम है!
यही नहीं, साल 2010-11 में भी इस मद में 7 करोड़ रूपये का बजट रखा गया लेकिन रिलीज़ हुआ सिर्फ 10 लाख रूपये और यह रक़म भी सरकारी खजाने में पड़ी रही, 2012-13 की तरह ही इस साल भी एक भी पैसा खर्च नहीं किया जा सका. (या जानबूझकर नहीं किया गया)
सिविल सेवा परिक्षाओं में बैठने वाले छात्रों की मदद के लिए भी सरकार ने बजट निर्धारित किया गया है. (Support for students clearing Prelims conducted by UPSC, SSC, State Public Services Commission etc) के लिए भी साल 2012-13 में 4 करोड़ का बजट रखा गया लेकिन इसके नाम पर महज़ 2 लाख रूपये रिलीज़ किए गए. और यह दो लाख रूपये भी खर्च नहीं किया जा सका. यदि यह चार करोड़ रुपये खर्च हो जाते तो हो सकता है कि कुछ अल्पसंख्यक छात्र सिविल सेवा परीक्षा पास कर पाते. लेकिन मुस्लिम परस्त होने का दावा करने वाले नेताओं को शायद यह पसंद नहीं है. तब ही तो मुस्लिम कल्याण के उनके नारे सभास्थलों में हवा हो जाते हैं और मुसलमानों के हाथ आती ही सिर्फ मायूसी और बेबसी. अब आज़म खाँ, शफीकुर्रहमान बर्क या असदउद्दीन ओवैसी किसी नेता से इस बारे में सवाल मत कर लेना. वरना उनकी आँखे लाल हो जाएंगी और वे वही आडंबर करने लगेंगे जो संसद में करते हैं. इनके लिए वंदे मातरम का गाया जाना या न गाया जाना तो मु्द्दा है लेकिन मुस्लिम छात्रों के लिए फंड रिलीज न होने शायद कभी मु्द्दा न हो. इनकी कौम परस्ती सिर्फ मज़हबी मसाइल को हवा देने तक ही सीमित हैं.
कौशल विकास पहल (Skill Development Initiatives) के नाम पर साल 2012-13 में 20 करोड़ रूपये का बजट रखा गया जबकि इसके नाम पर रिलीज हुआ सिर्फ 5 लाख रूपये और इसमें से भी एक भी पैसा खर्च नहीं किया गया.
छोटे अल्पसंख्यकों की जनसंख्या में गिरावट रोकने के लिए योजना (Scheme for containing population decline of small minorities) का भी यही हाल है. साल 2012-13 में केन्द्र सरकार के इस स्कीम के लिए 2 करोड़ का बजट रखा गया, लेकिन रिलीज किया गया सिर्फ 1 लाख रूपये. इसी तरह साल 2010-11 में भी इस स्कीम के लिए 2 करोड़ का बजट रखा गया, लेकिन रिलीज किया गया सिर्फ 1 लाख रूपये. और दिलचस्प यह है कि दोनों ही बार एक पैसा भी खर्च नहीं किया गया. जबकि बाकी के सालों में इसके नाम का बजट ही गोल कर दिया गया.
भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए प्रोमोशनल क्रियाओं (Promotional Activities for Linguistic Minorities) के नाम पर साल 2010-11 में 1 करोड़ रूपये का बजट रखा गया. लेकिन महज़ 5 लाख रूपये रिलीज किया जा सका और बाकी अन्य योजनाओं की तरह ही इस योजना के तहत भी एक भी रुपया खर्च नहीं किया गया. और इस साल के बाद से इस योजना का बजट ही गोल कर दिया गया या यूं कहिए कि स्कीम ही गायब हो गई.
विदेशों में अध्ययन के लिए शिक्षा ऋण पर ब्याज सब्सिडी (Interest Subsidy on Educational Loans for Overseas Studies) के लिए साल 2012-13 में 2 करोड़ का बजट पास किया गया लेकिन रिलीज हुआ सिर्फ दो लाख रूपये. इसी तरह साल 2010-11 में भी में 2 करोड़ का बजट पास किया गया लेकिन रिलीज हुआ सिर्फ दो लाख रूपये. इन दोनों वर्षों में खर्च के साथ साथ बाकी के सालों में बजट ही गोल कर दिया गया.
राज्य वक्फ बोर्डों के अभिलेखों के कंप्यूटरीकरण (Computerization of records of State Wakf Boards) के लिए साल 2012-13 में 5 करोड़ रूपये का बजट रखा गया लेकिन रिलीज हुआ सिर्फ 1.65 करोड़ रूपये. और इस पैसे को भी देश के तमाम राज्य खर्च नहीं कर सके. देश के तमाम राज्यों में इस मद में मात्र 89 लाख रुपये ही खर्च किए जा सके.  साल 2011-12 की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. इस साल भी 5 करोड़ रूपये का बजट रखा गया. लेकिन रिलीज सिर्फ 2 करोड़ रूपये ही हो सका. और इस 2 करोड़ रूपये को भी देश के तमाम राज्य खर्च नहीं कर सके. सिर्फ 62 लाख रूपये ही देश के तमाम राज्य मिल कर खर्च कर पाएं. साल 2010-11 की कहानी तो और भी हैरान कर देने वाली है. इस साल 13 करोड़ रूपये का बजट रखा गया था. लेकिन रिलीज सिर्फ 6 करोड़ रूपये ही हो सका. और इस 6 करोड़ रूपये में से सिर्फ 3.63 करोड़ रूपये ही देश के तमाम राज्य मिल कर खर्च कर पाएं.
व्यावसायिक और तकनीकी पाठ्यक्रमों स्नातक और स्नातकोत्तर कोर्सेज के लिए योग्यता सह साधन छात्रवृत्ति योजना (Merit-cum-Means Scholarship for professional and technical courses of under graduate and post graduate)  के लिए साल 2012-13 में 220 करोड़ का बजट रखा गया, पर रिलीज़ 184.07 करोड़ ही हुआ. और खर्च 181.21 करोड़ रूपये ही किए गए. बाकी के सालों में स्थिति थोड़ी बेहतर रही. लेकिन साल 2008-09 में इस स्कॉलरशिप के लिए 124.90 करोड़ का बजट रखा गया था, लेकिन रिलीज़ सिर्फ 64.94 करोड़ ही किया गया. शायद ऐसा कोई ही छात्र हो जिसने इस योजना के तहत फार्म न भरा हो और न जाने कितने फॉर्मों को फंड न होने का हवाला देकर रद्द कर दिया गया हो. अब सवाल यह उठता है कि जब पूरा फंड रिलीज ही नहीं किया गया और जो रिलीज हुआ भी वह खर्च ही नहीं किया गया तो फिर फॉर्म रद्द कैसे हो गए? अल्पसंख्यकों की रहनुमाई करने वाले नेताओं से यदि यह सवाल पूछ लिया जाए तो उनका गला सूख जाएगा और अगर बेशर्मी से हलक़ से दो चार शब्द बाहर निकले भी तो एक और नया झूठ ही सामने आएगा. क्योंकि इस मामले में सच्चाई इन रहनुमाओं की खोखली नेतागिरी से भी ज्यादा बेशर्म है.
चयनित अल्पसंख्यक बहुल जिलों में अल्पसंख्यकों के लिए बहुक्षेत्रीय विकास कार्यक्रम (Multi Sectoral Development Programme for Minorities in selected of Minority Concentrated Districts) योजना के लिए साल 2008-09 में 539.80 करोड़ का बजट रखा गया लेकिन रिलीज हुआ सिर्फ 279.89 करोड़ रूपये. जबकि साल 2012-13 में इस स्कीम के लिए 999 करोड़ का बजट रखा गया लेकिन रिलीज हुआ सिर्फ 649 करोड़ रूपये. अब आप किसी रहनुमा से इस बजट के बारे में सवाल मत कर लीजिएगा. यदि सवाल कर लिया तो हो सकता है किसी मस्जिद की टूटी दीवार की ईंट उठाकर ही वे आपके सिर पर मार दें.
पोस्ट मैट्रिक छात्रवृत्ति (Post Matric Scholarship) योजना के लिए साल 2008-09 में 99.90 करोड़ का बजट रखा गया लेकिन रिलीज हुआ सिर्फ 69.93 करोड़ रूपये. जबकि साल 2012-13 में इस स्कीम के लिए 500 करोड़ का बजट रखा गया लेकिन रिलीज हुआ सिर्फ 340.75 करोड़ रूपये और खर्च 326.55 करोड़ रूपये ही किया जा सका. यदि यह पूरा पैसा रिलीज़ हो जाता तो शायद गरीबों के बच्चे दसवीं के बाद कॉलेज के मुंह देख पाते. लेकिन यदि गरीब अल्पसंख्यकों के बच्चे पढ़ गए तो फिर इन नेतओं के फूहड़ भाषणों पर ताली कौन बजाएगा?
पिछड़े शहरों के रूप में पहचाने गए 251 में से 100 अल्पसंख्यक बहुल कस्बों/शहरों में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए शुरू की गई योजना (Scheme for promotion of education in 100 minority concentrate towns/cities out of 251 such town/cities identified as backward)  का हाल तो और भी बुरा है. इस स्कीम के लिए केन्द्र सरकार ने 50 करोड़ का बजट रखा लेकिन रिलीज सिर्फ 4 लाख रूपये ही किया गया लेकिन उदासीनता की हद यह रही कि इसमें से एक रुपया भी खर्च नहीं किया गया.
यही हाल एमसीबी/एमसीडी के अंतर्गत न आने वाले गांवों के लिए ग्राम विकास कार्यक्रम (Village Development Programme for Villages not covered by MCB/MCDs) का भी है. इस स्कीम के लिए भी केन्द्र सरकार ने 50 करोड़ का बजट रखा लेकिन रिलीज सिर्फ 4 लाख रूपये ही किए गए. और इन चार लाख में से एक फूटी कौड़ी भी खर्च नहीं की गई.
एमसीडी में जिला स्तरीय संस्थाओं को समर्थन (Support to district level institutions in MCDs) के लिए भी साल 2012-13 में केन्द्र सरकार ने 25 करोड़ का बजट रखा लेकिन इसमें भी सिर्फ चार लाख ही रुपये रिलीज किए गए जिसमें से एक पैसा भी खर्च नहीं किया गया. यानि इस योजना का लाभ एक भी व्यक्ति को नहीं पहुँचा.
नौवीं कक्षा की लड़कियों के लिए फ्री साइकिल योजना (scheme of Free Cycles to girl students of class IX) का हाल भी ऐसा ही है. इस स्कीम के लिए साल 2012-13 में केन्द्र सरकार ने सिर्फ 5 करोड़ का बजट रखा गया जिसमें से मात्र चार लाख रुपये रिलीज किए गए और खर्च एक पैसा भी नहीं किया गया.
सच जो हर हिंदुस्तानी अल्पसंख्यक को जानना चाहिए वह यह है कि अल्पसंख्यकों के शैक्षिक, सामाजिक व आर्थिक उत्थान एवं कल्याण के लिए शुरु की गई तमाम सरकारी योजनाओं ने कागजों पर ही दम तोड़ दिया. और हमारे नेताओं ने इनकी फातेहा तक नहीं पढ़ी.
पहले तो बजट ही ऊँट के मुँह में जीरे के समान रखा गया. लेकिन यह जीरा भी ऊँट के मुँह में नहीं गया. इससे भी कड़वा सच यह है कि जो पैसा खर्च हुआ उसका भी बड़ा हिस्सा नेताओं और अफ़सरों की जेब में चला गया.
यदि अब तक बयाँ की गई हकीक़त से आपके गले का पानी सूख गया है तो अब आपके दिल पर पत्थर पड़ने वाले हैं. क्योंकि सबसे शर्मनाक हक़ीकत यह है कि सरकार और नेताओं के पोस्टरों पर जारी किए गए फंड से ज्यादा पैसा खर्च कर दिया गया. लेकिन देश का कोई अखबार या टीवी चैनल आपको यह नहीं बताएगा क्योंकि सरकार की इन लोक लुभावन (लेकिन ज़मीनी स्तर पर शून्य) योजनाओं के विज्ञापन और उनमें चमकने वाले नेताओं के चेहरे इनके ज़रिये ही आप तक पहुँचे. जब टीवी चैनलों और अखबारों को विज्ञापनों के ज़रिए अपना हिस्सा मिल ही गया तो वे असली हक़दारों तक पैसे की पहुँचने या न पहुँचने की चिंता क्यों करें? शायद ही किसी भी टीवी या अखबार का कोई तेज़ तर्रार रिपोर्टर इन आँकड़ों से उपजे सवालों को नेताजी के मुँह पर दागने की हिम्मत न जुटा पाए, क्योंकि उसके चैनल/अख़बार को तो अपना हिस्सा मिल ही गया है.
आपको यह जानना चाहिए कि साल 2008-09 में Research/Studies, Monitoring & Evaluation of Development Schemes for Minorities  including Publicity के लिए 5 करोड़ रूपये का बजट रखा गया था. लेकिन रिलीज 8.95 करोड़ रूपये किया गया और खर्च भी 7.97 करोड़ रूपये रहा. साल 2009-10 में बजट को बढ़ाकर 13 करोड़ रूपये कर दिया गया. 13 करोड़ रूपये रिलीज भी हुआ और इसमें से 11.97 करोड़ रूपये खर्च भी किया गया. साल 2010-11 में बजट को और बढ़ाकर 22 करोड़ रूपये कर दिया गया. 22 करोड़ रूपये रिलीज भी हुआ और इसमें से 19.63 करोड़ रूपये खर्च भी किया गया. साल 2011-12 में यह बजट बढ़कर 36 करोड़ हो गया. 36 करोड़ रूपये रिलीज भी हुआ और इसमें से 24.48 करोड़ रूपये खर्च भी किया गया. साल 2012-13 में बजट को और बढ़ाकर 40 करोड़ रूपये कर दिया गया. 33.30 करोड़ रूपये रिलीज भी हुआ और इसमें से 33.29 करोड़ रूपये खर्च भी किया गया. अब सवाल यह उठता है कि जब मूल योजनाओं का पैसा ही रिलीज नहीं किया गया तो उनके अध्ययन पर यह पैसा कैसे खर्च कर दिया गया. हम कोशिश करेंगे की इसकी पूरी सच्चाई भी आप तक पहुँचे.
यदि आप पिछले 15 दिन से अख़बार पढ़ रहे हैं या किसी भी रूप में ख़बरें देख रहे हैं तो आपको लगेगा कि मुसलमानों के लिए सबसे अहम मसला एक मस्जिद की दीवार है. कम से कम यूपी सरकार को तो यही लगता है. लेकिन आपको यह सवाल भी खुद से करना होगा कि देश के तमाम बड़े अख़बारों में एक मस्जिद की दीवार का गिरना और उसके लिए एक आईएएस अधिकारी का तबादला किया जाना तो खबर बन जाता है लेकिन मुसलमानों के हक़ में पड़ रहा हजारों करोड़ का यह डाका खबर नहीं बन पाता? आखिर क्यों? यदि आपकी समझ इस बुनियादी लेकिन अहम सवाल का जबाव तलाश पा गए तो समझ लीजिए बेदारी की राह में पहला कदम आपने आगे बढ़ा दिया है.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव बेशर्मी से कहते हैं कि सांप्रदायिक सौहार्द न बिगड़े इसके लिए उन्होंने अफ़सर का तबादला कर दिया, और वे आगे भी ऐसा ही करते रहेंगे. क्या अखिलेश यादव इस सवाल का जबाव देने की हिम्मत भी जुटा पाएंगे कि मुसलमानों को उनका जायज़ हक़ न देने वाले अफ़सरों के ख़िलाफ़ आज तक उन्होंने क्या कार्रवाई की है? अखिलेश की तो छोड़िये मुसलमानों के सरपरस्त बनने का दावा करने वाले आज़म खाँ भी इस सवाल के जबाव में सिर्फ अपने ख़ाली गिरेबां में ही झाँक सकते हैं. वे अपनी आलोचना में पोस्ट की गई टिप्पणी पर तो किसी आम नागरिक को हवालात की हवा खिला सकते हैं लेकिन मुसलमानों का हक़ डकारने वाले अफ़सरों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने में उनकी भी घिग्घी बंध जाएगी.
अब सवाल यही उठता है कि जब नेता खामोश हैं, अफ़सर हक़ पर डाका डाल रहे हैं. मुसलमान हुक्मरानों ने बेशर्मी अख़्तियार कर ली है तो फिर हम क्या करें? इसका सीधा सा जबाव यह है कि अब हमें मुश्किल सवाल पूछने की शुरूआत करनी होगी. और ज़रूरी नहीं है कि यह सवाल नेताओं के मुँह पर ही पूछा जाए. आप यह लेख शेयर करके भी ऐसा कर सकते हैं.
यदि आपने यह लेख यहाँ तक पढ़ लिया है तो इस सच्चाई को बाकी देशवासियों तक भी पहुँचाइये ताकि खोखली सरकार, खोखले नेताओं और खोखले मुसलिम हुक्मरानों की सियाह हक़ीकत लोगों के सामने आ जाए और वे असली और अहम सवालों के बारे में सोचना शुरू करें.
(यह आँकड़े पूरे देश के हैं. समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव और आज़म खाँ के नाम का इस्तेमाल मुसलमानों के नाम पर हो रही राजनीतिक को रेखांकित करने के लिए किया गया है. मुसलमानों की बदहाली के लिए बाकी नेता भी इतने ही जिम्मेदार हैं जितना के इस स्टोरी में उल्लेखित किए गए राजनेता.)


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The Energy of Anger – Part 2


As mentioned in the previous article, anger is energy. Energy has the power to transform matter. This means that anything touched by that energy depending on the intensity of it, will be colored by that energy. If you are cooking, you will put the ingredient of anger in your meal. If you speak with someone in angry mode and that person is "unprotected" (energetically) that current will go through in the form of fear or further anger.
Please be aware of this: To say that anger is "bad," is to go back into the duality of it. A person who has the understanding of things as being "good" or "bad" has the understanding of the level of spirituality 101. This is not "bad," it means that it is a beginner understanding.
A little puppy is told "bad dog," when we would like to correct the behavior of the puppy. Because the dog does not have complexes related with moral teachings; what the dog merely understands is: "do," and "don't do." The dog does not comprehend the complexities of "heaven and hell" and "punishment forever… "
We may need to learn from that puppy dog :-) and rather than qualify something as "good" or "bad," just refer to that as "do it" or "don't do it," for in this way guilt and repentance are avoided, for we know that in spirituality, whatever we "do" or "don't do" has a return; thus, it is wasteful to resort into meaningless thoughts, when we will have to "pay the bill anyway" or "obtain the fruits of our activities."
"Not doing" is actually doing. Not acting is acting.
If we consider that anger is "bad," we will repress it. In a few words, we will be allowing that energy to cause damage in our being. The "healthy" alternative given by "experts," is to send it away, to "others," in adequate doses, :-) to "express it." "Experts" recommend to hit a punching bag or to go for a 15 mile run,ect.to dissipate that anger. That is to merely waste our own energy unnecessarily.
As we know, in Spirituality, the "other" is non-existent when it comes to karmic returns. Basically, that anger will just come back to the originator.
Therefore, whether we keep it inside by labeling it as "bad," or whether we send it out by calling that "healthy" or "good," it just comes back to us.
It is very important to understand that anger occurs because we are not aware of it at the moment something is triggered in us, and the ultimate reason as to why we are not aware, is because our state of being is chaotic. Something we will not hear from the latest M.D research or "expert" advice.
That is our mind is not stable and nourished with serenity and calmness.
Thus, we cannot expect a method to deal with anger when our minds are not experiencing continuous serenity.
On the other hand, if we nourish ourselves continually in the morning with the experience of serenity and lightness coming from Nature or by some tranquil activity such as meditation or a combination, then our state of mind will be tranquil; and when something may likely trigger anger in us, we will be able to recognize it and to feel the consequence of it in our own bodies and beings. It just takes a second.
The stove of anger is burning, but we keep putting our hands in it as an automatic, learned response. If on the other hand, we are aware of the heat coming from the stove, we will learn about the pains of being burned… which we call "living life," until all of a sudden, we know better by experience.
If we awaken to the awareness of anger without labeling it, then we can transform that energy in us BEFORE it happens by being serene calm, observing it… until it goes away…
A serene, calm mind will feel the disturbance of anger and self correct by itself without the need of remembering "moral codes."

 
 Your Divine Friend
 DR.BK.Satyanarayan 

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Breathtaking view of Kjeragbolten boulder wedged in a mountain crevice in the Kjerag mountains in Norway.
                                             
 
                                             Constant Attention
 
Peace is not a passive attitude; it is an active state. It requires having constant attention in order to live and to respond as a peaceful being to any upset in life.
 
 
 
The Truth
 
There is no need to prove the truth. Trying to do so shows only your
own stubbornness. Truth will always reveal itself at the right moment
and the right place. You need be concerned only with living true to
your own self.
 
Enjoying My Stay inside the Physical Body

An interesting comparison to understand clearly the relationship between the soul and the body is that the soul is the resident of a house or an apartment which is the physical body. It's the awareness of who is the resident living, which is separate from where he is living. I need to realize, that like a resident of a house cannot be the house; he does not and cannot identify with the place in which he resides; in much the same way, I am not my body, the place in which I reside, but I am a resident. A resident of a physical house may or may not stay in the house for 24 hours, depending on his/her role. But I, as a spiritual resident of this physical body spend all my time inside it, in fact a complete lifetime, then I move in to another house or apartment. Since I spend so much time inside it, I need to maintain the body, take care of its upkeep and the kind of physical and spiritual atmosphere that exists inside it. When I keep it clean, fresh and vibrant, only then can I live in it comfortably.


Do not forget, there's plenty of rubbish and dirt waiting to enter the apartment. My apartment's windows are my eyes and ears, through which rubbish can come in. This rubbish can be in the form of negative information, scenes, images and words. Rubbish dirties the resident, in this case my consciousness, taking me away from my true, positive, spiritual state. My nose, facing outwards, is like the front door of my apartment: it's the first part of me that faces the world. If harsh winds of difficult circumstances blow, and I don't know how to protect myself, I will catch a cold or fall sick i.e. my front door will be harmed and I'll become vulnerable. The living room of the apartment is my tongue which makes the first impression on anyone, whether it be positive or negative. There will be constant attacks on our windows, doors, living room, etc. But if I am aware and alert, I will keep my house in order. If any rubbish does get in, I need to soon clean it out again, so that the atmosphere inside the house remains positive and I, the resident can enjoy my stay in it.
 
Soul Sustenance
 
Meditation and Health

Each original quality of the self or soul is specially required for nourishing and empowering one human body system. The quality of peace is responsible for taking care of the respiratory system, joy for the gastrointestinal system, love for the circulatory system, bliss for the endocrine system, knowledge for the brain and nervous system, purity for the immune system and the five senses and power for the muscular and skeletal systems.

Each one of us has at least one body system, which is most prone to disease. When our mind is under the influence of stressful emotions, there is a decrease in the flow, from the soul to this body system, of that quality which is required by it for its nourishment, which leads to the development of disease in this system over a period of time e.g. when an individual with a weak respiratory system is in a negative state of mind, there is a decrease in the flow of the quality of peace to the respiratory system which in turn can lead to a disorder like asthma.


Message for the day

The one who gives constantly is a true bestower.
Projection: We usually find ourselves giving only to those who give to us. When someone gives us love or happiness, we too are inspired to give. So we find that unless we get from others, it becomes difficult to give.

Solution: We need to have the aim of not letting anyone go from us empty handed. That means we give them an experience of love or happiness or whatever they need at that time. When we have that aim, we will be able to give even when we don't get anything. And then, we find that only when we give do we get.


 
 Your Divine Friend
 DR.BK.Satyanarayan 

   

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[2]
ASTROLOGY OPEN TO YOU
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NIRIN BEING AWARDED GRADUATION CERTIFICATE

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As-Salaam Alaikum,

 
Avoid the seven great destructive sins
 
Narrated Abu Huraira: The Prophet (pbuh) said, "Avoid the seven great destructive sins." They (the people!) asked, "O Allah's Apostle! What are they?" He said,

" (1) To join partners in worship with Allah;
(2) to practice sorcery;
(3) to kill the life which Allah has forbidden except for a just cause
(according to Islamic law);
(4) to eat up usury (Riba),
(5) to eat up the property of an orphan;
(6) to give one's back to the enemy and fleeing (running away / escaping) from the battle-field at the time of fighting
(7) and to accuse chaste women who never even think of anything touching
chastity and are good believers."

(Bukhari 8/840)
 
'Abdullah b. Amr reported Allah's Messenger (may peace be upon
him) as saying: The whole world is a provision, and the best
object of benefit of the world is the pious woman.

(Muslim 8/3465-Marriage Kitab Al Nikah)

Compiled by Mirza Ehteshamuddin Ahmed

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Allah Hafiz.









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