लब इश्क़ के साग़र से ज़ालिम न कर आलूदा1
अब देख तो हाल अपना टुक2 रहम की नज़रों से
नाहक़ की बला में तू है किस क़दर आलूदा
आँखें तिरी रखती हैं दामानो-गरीबाँ3 को
ख़ूँनाब4 के क़तरों से से शामो-सहर5 आलूदा
जिस सिम्त6 निगह कीजे ऊधर नज़र आता है
लोहू से तिरे सर की दीवारो-दर आलूदा
जब मैं तुझे समझाकर रो-रो इन्हें धोता हूँ
कहता है न होवेगा बारे-दिगर7 आलूदा
लेकिन ये नसीहत है बेफ़ायदा, क्या हासिल
ये है कि उधर धोया, वो हैं उधर आलूदा
इस बात में ऐ नादाँ, बतला तो मज़ा क्या है
पाँवों से जो तू ख़ूँ में है ता-ब-सर8 आलूदा
जिस वक़्त ग़रज़ उनने ये बात सुनी मुझसे
इतना ही कहा भरकर आहे-असर-आलूदा9
लज़्ज़त को हलाहल की क्या उनको बताऊँ मैं
है कामो-दहन10 जिनका शहदो-शकर-आलूदा...~`
शब्दार्थ
1. दूषित, 2. ज़रा, 3. दामन और गरबान, 4. रक्त, 5. सुबह-शाम, 6. तरफ़, 7. दूसरी बार, 8. सर तक, 9. असर रखने वाली आह, 10. होंठ और मुँह
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