आधुनिक काल के शायर फैज अहमद फैज भारत उपमहाद्वीप में इस साल फैज अहमद फैज की जन्मशती का जश्न चल रहा है। पाकिस्तान की सरजर्मी के इस शानदार शायर को संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप का शायर माना जाता है। फैज अहमद फैज की शायरी मंत्रमुग्ध करने वाली शायरी मानी जाती है। इसका अहम कारण रहा है कि फैज ने साहित्य और समाज की खातिर जीवनपर्यन्त कठोर तपस्या अंजाम दी। जिंदगी भर समाज के गरीब मजलूमों के लिए समर्पित रहने वाले फैज ने बेवजह शेर कहने की कोशिश कदाचित नहीं की। उनके कविता संग्रह नक्श ए फरयादी प़ढते हुए गालिब की एक उक्ति बरबस याद आ जाती है कि जब से मेरे सीने का नासूर बंद हो गया, तब से मैंने शेर ओ शायरी करना छ़ोड दिया। सीने का नासूर फिर चाहे मुहब्बत अथवा प्रेम भाव के रूप में विद्यमान रहे और चाहे वतन एवं मानवता के प्रेम के तौर पर कायम रहे। यह महान् भाव कविता के लिए ही नहीं वरन सभी ललित कलाआें के लिए एक अनिवार्य तत्व रहा है। अध्ययन और अभ्यास के बलबूते पर बात कहने का सलीका तो आ सकता है, किंतु उसे दमदार और महत्वपूर्ण बनाने के लिए कलाकार को अपने ही अंतस्थल में बहुत गहरे उतरना प़डता है। मोहम्मद इकबाल ने फरमाया अपने अंदर डूब कर पा जा सुराग ए जिंदगी तू अगर मेरा नहीं बनता न बन अपना तो बन फैज अहमद फैज आधुनिक काल के उन ब़डे शायरों में शुगार रहे हैं, जिन्होंने काव्य कला के नए अनोखे प्रयोग अंजाम दिए, किंतु उनकी बुनियाद सदैव ही पुरातन क्लासिक मान्यताआें पर रखी। इस मूल तथ्य को कदापि नहीं विस्मृत नहीं किया कि प्रत्येक नई चीज का जन्म पुरानी कोख से ही होता आया है। उनकी बहुत मशहूर गजल को ही देखें मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब ना मांग और भी दुख हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा राहते और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा अनगिनत सदियों तारीक बहीमाना तिलिस्म रेशम ओ अतलस ओ कमखाब में बुनवाए हुए जा बजा बजा बिकते हुए कूच आ बाजार में जिस्म खाक में लिथ़डे हुए खून में नहलाए हुए जिस्म निकले हुए अमराज के तन्नूरों से पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से लौट जाती है उधर को भी नजर क्या कीजे अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे फैज अहमद फैज सन् १९११ में अविभाजित हिदुस्तान के शहर सियालकोट (पंजाब) के एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मे थे। प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा स्कॉच मिशन हायरसेकेंडरी स्कूल से हुई। इसके पश्चात गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से १९३३ में इंग्लिश से एम ए किया और वहीं से बाद में अरबी भाषा में भी एम ए किया। सन् १९३६ में वह भारत में प्रेमचंद, मौलवी अब्दुल हक, सज्जाद जहीर और मुल्कराज आनंद द्वारा स्थापित प्रगतिशील लेखक संघ में बाकायदा शामिल हुए। युवा फैज अहमद फैज ने प्रगतिशील लेखक संघ की तहारीक को साहिर लुधायानवी, किशन चंद्र, शैलेंद्र, राजेंद्र सिंह बेदी, जां निसार अख्तर, कैफी आजमी, अली सरदार जाफरी, भीष्म साहनी, के ए अब्बास, डॉ रामविलास शर्मा, नीरज आदि अनेक मूर्धन्य कवियों शायरों और लेखकों के साथ मिलकर नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया । प़ढाई लिखाई में बेहद मेधावी रेह फैज ने एम ए ओ कॉलेज अमृतसर में अध्यापन कार्य १९३४ से १९४० तक किया। इसके पश्चात १९४० से ४२ तक हैली कॉलेज लाहौर में अध्यापन किया। १९४२ से ४७ तक में फैज अहमद फैज ने सेना में बतौर कर्नल अपनी सेवाएं अंजाम दी। १९४७ में फौज से अलग होकर पाकिस्तान टाइम्स और इमरोज अखबारों के एडीटर रहे। सन् १९५१ में उनको पाकिस्तान सरकार ने रावलपिंडी कांसपेरिसी केस के तहत गिरफ्तार किया गया। उल्लेखनीय है कि इसी केस के तहत ही भारतीय नाट्य संघ (इप्टा) के लेजेन्डरी संस्थापक जनाब सज्जाद जहीर उर्फ बन्ने मियां को भी गिरफ्तार किया गया। इसी मुकदमे के सिलसिले में फैज को १९५५ तक जेल में ही रहना प़डा। फैज की शायरी के अनेक संग्रह प्रकाशित हुए, इनमें नक्शएफरयादी, दस्तएसबा, जिंदानामा और दस्त ए तहे संग बहुत मकबूल हुए। एक ब़डी ही विचित्र किंतु प्रशंसनीय बात है कि प्राचीन और आधुनिक शायरों की महफिल में बाकायदा खपकर भी फैज की एकदम अलग शख्सियत कायम है। फैज ने काव्यकला के बुनियादी नियमों में कोई संशोधन नहीं किया। उर्दू के प्रसिद्ध शायर असर लखनवी ने फैज के विषय में अपनी टिप्पणी में कहा कि फैज की शायरी तरक्की के दर्जे तय करती हुई, शिखर बिंदु तक पहुंची। कल्पना (तखय्युल) ने कला के जौहर दिखाए और मासूम जज्बात को हसीन पैकर (आकार) बख्शा। क्यों मेरा दिल नाशद नहीं क्यों खमोश रहा करता हूं छ़ोडो मेरी राम कहानी मैं जैसा भी हूं अच्छा हूं क्यों न जहां का गम अपना ले बाद में सब तदबीरें सोचें बाद में सुख के सपने देखें सपनों की ताबीरें सोचें हमने माना जंग क़डी है सर फूटेगें खून बहेगा खून में गम भी बह जाएंगेे हम न रहेंगे गम न रहेगा। अपनी शायरी के अंदाज ए बयां की तरह ही व्यक्तिगत जिंदगी में भी कभी किसी ने उनको ऊंचा बोलते हुए नहीं सुना। मुशायरों में भी फैज कुछ इस तरह से शेर प़ढा करते थे कि होठों से जरा ऊंची आवाज निकल गई, तो न जाने कितने मोती चकनाचूर हो जाएंगे। वह फौज में रहे। कॉलेज में प्रोफेसरी की। रेडियो की नौकरी की, अखबार के एडीटर रहे। पाकिस्तान हुकूमत ने हिंसात्मक षड्यंत्र के इल्जाम में जेल में रखा, किंतु उनके नर्म दिल लहजे और शायराना अंदाज में कतई कहीं कोई अंतर नहीं आया। उनकी शख्सियत बयान करती है कि जीवन यापन की खातिर बहुत से पेशों से गुजरते हुए वह मूलतः एक इंकलाबी शायर ही रहे। फैज की आवाज का नरम लहजा और उसकी गहन गंभीरता वस्तुतः उनके बेहद कठोर मुश्किल जीवन और अपार अध्ययन का स्वाभाविक परिणाम समझा जाता है। दुनिया के मेहनतकश किसान मजदूरों और उनकी अंतिम विजय में उनका गहरा यकीन कायम रहा। भारत के विभाजन को उन्होंने मन से कदाचित स्वीकार नहीं। उनकी मशहूर नज्म सुबह ओ आजादी इसकी गवाह रही है ये दागदाग उजाला ये शब गुजीदा सहर वो इंतजार था जिसका ये वो सहर तो नहीं ये वो सहर तो नहीं जिसकी आरजू लेकर चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं ना कहीं अभी गिरानी ए शब में कमी नहीं आई नजाते दीदा ओ दिल की घ़डी नहीं आई चले चलो कि वो मंजिल अभी नहीं आई १९६० के दशक में फैज को एक इंटरनेशनल शायर के तौर पर तस्लीम किया गया। अपने जीवन के आखिरी दौर तक फैज ने अपना यह मकाम बनाए रखा। यही कारण है कि दुनिया में चारो ओर बहता हुआ मानवता का लहू उनकी शायरी में छलकता नजर आता है। पुकारता रहा बेआसरा यतीम लहू किसी के पास समाअत का वक्त था न दिमाग कहीं नहीं कहीं भी नहीं लहू का सुराग न दस्त ओ नाखून ए कातिल न आस्तीं के निशां इंसान और मानवता के बेहतरीन मुस्तकबिल में उनका तर्कपूर्ण यकीन बेमिसाल रहा। उनके एक तराने ने तो न जाने कितने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संघषा] को हौंसला दिया। दरबार ए वतन में जब इक दिन सब जाने वाले जाएंगे कुछ अपनी सजा को पहुंचेेंगे कुछ अपनी जजा ले जाएंगे ऐ खाक नशीनों उठ बैठो वो वक्त करीब आ पहुंचा है जब ताज गिराए जाएंगे जब तख्त उछाले जाएंगे ऐ जुल्म के मारों ब खोलो चुप रहने वालों चुप कब तक कुछ हश्र तो इनसे उठ्ठेगा कुछ दूर तो नाले जाएंगे अब दूर गिरेगीं जंजीरे अब जिंदानों की खैर नहीं जब दरिया झूम के उठ्ठगें तिनको से ना टाले जाएंगे कटते भी चलो ब़ढते भी चलो बाजू भी बहुत है सर भी बहुत चलते भी चलो कि अब डेरे मंजिल पे ही डाले जाएंगे। इस संक्षिप्त लेख के माध्यम से फैज की शख्सियत और उनकी शायरी कुछ रोशनी डालने का प्रयास किया गया, अन्यथा ऐसे शायर पर जिसने कालजयी कविता के माध्यम से अपने युग के खुद दर्द को आत्मसात करके, उसे अपनी शख्सियत का हिस्सा बना लिया और उन्हें बेहद मनमोहक अंजाद में बयां कर दिया। जिसकी शायरी की ताकत जनमानस से उसका गहरा संबंध रही। जिसने जेल की अंधेरी कोठरी में आशा, अभिलाषा और उत्साह के अमर तराने लिखे, उसकी दास्तान पर तो अनेक ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। अपनी कठोर कैद में फैज ने एक नज्म लिखी जो कालजयी सिद्ध हुई, उसकी चर्चा के बिना यह लेख अधूरा रहेगा, क्योंकि फैज की ये काव्यात्मक पंक्तिया उनके व्यक्तित्व और शायरी के अंदाज की एक शानदार झलक हैं मेरा कहीं कयाम क्या मेरा कहीं मकाम क्या मेरा सफर है दर वतन मेरा वतन है दर सफर मता ए लौहे कलम छिन गई तो क्या गम है कि खून ए दिल में डूबो ली है अंगुलियां मैंने जुबां पे मोहर लगी तो क्या गम है
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