है परीक्षा को देखो घड़ी आ गयी , अब तो जागो जवानी तुम्हें है क़सम।
भावनाओं का बढ़ है प्रदूषण रहा, आए दिन अब सुलगने लगे हैं शहर। जड़ जमाती ही जातीं दुरभिसन्धियाँ, और फैला रही हैं नसों में ज़हर।
साज़िशों में घिरी यह धरा छोड़कर, यों न भागो जवानी तुम्हें है क़सम।
लाख चौकस है हम किन्तु शत्रु यहाँ, जश्न अपना मनाकर चले जाते हैं। बाद में खेल चलता सियासत का है, देशवासी स्वयं को ठगे पाते हैं।
ब्रेन की 'गन' सहेजोगे कब तक भला, गोली दागो जवानी तुम्हें है क़सम।
देश का ही पराभव गया हो अगर, अपना मुँह बोलो लेकर कहाँ जाओगे। जाओगे तुम जहाँ भी वहाँ बेरुखी, पाओगे और कायर ही कहलाओगे।
भेदकर शत्रुओं के हृदय शूल पर, बढ़के टाँगो जवानी तुम्हें है क़सम।
देश को है अपेक्षाएँ तुम से बहुत, लड़ लो बढ़कर लडाई जो सर आ पड़ी। वरना मुश्किल में पड़ जाएगा यह चमन, संस्कृति की बचेगी न कोई कड़ी।
मात्र सुविधाओं की चाशनी में न यों, प्राण पागो जवानी तुम्हें है क़सम।
हिन्द से है तुम्हारी अपेक्षा सही, मन का शासक तुम्हें कोई ऐसा मिले। ज़ख्म बदहालियों के मिले जो तुम्हें, प्रेम से उनको सहलाए और फिर सिले।
रोज़ी रोटी के सब अपने अधिकार को, हक़ से मांगो जवानी तुम्हें है क़सम।
- डॉ. रंजन विशद
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